तुम रुठे मुझसे जबसे सब रुठा-रुठा लगता है।
दुआ इबादत और खुदा सब झूठा-झूठा लगता है।
सच लगते थे सब ख्वाब अधेंरी रातों के।
और सच य़े है की अब सच भी मुझको झूठा-झूठा लगता है।
अजब है य़े बरखा भी अब य़े भी रोज बरसाती है।
फिर भी य़े सावन मुझको सूखा-सूखा लगता है।
कोयल की बोली भी मुझको करकश लगती है।
और वो फूलों की बगियां भी अब सूखी-सूखी सी लगती है।
याद है मुझको वो रातें भी जाब चंद सितारे साथ हमारे चलते थे।
अब दुनियां चलती है साथ मेरे पर सब रुका-रुका सा लगता है।
Assistant Professor
NIT, Hamirpur
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